रावण ने सब ग्रहों को अपने पैर के नीचे दबाकर रखा था जिससे कि वह मुक्त न हो सकें। उधर देवताओं ने ग्रहों की मुक्ति की एक योजना बनाई।
इस योजना के अनुसार नारद ने रावण के पास जाकर पहले उसका यशगान किया। फिर उससे कहा कि ग्रहों को जीतकर उसने बहुत अच्छा किया। पर जिसे जीता जाए, पैर उसकी कमर पर नहीं, उसकी छाती पर रखना चाहिए।
रावण को यह सुझाव अच्छा लगा। उसने अपना पैर थोड़ा सा उठाकर ग्रहों को पलटने का आदेश दिया। ज्यों ही ग्रह पलटे, शनि ने तुरन्त रावण पर अपनी दृष्टि डाल दी। उसी समय से रावण की शनि दशा आरम्भ हो गई।
जब रावण की समझ में आया कि नारद क्या खेल खेल गए, तो उसे बहुत क्रोध आया। उसने शनि को एक शिवलिंग के ऊपर इस प्रकार बाँध दिया कि वह बिना शिवलिंग पर पैर रखे भाग नहीं सकता था।
वह जानता था कि शनि शिव का भक्त और उनका शिष्य होने का कारण कभी भी शिवलिंग पर पैर नहीं रखेगा। पर उसकी शनि दशा आरम्भ हो चुकी थी। हनुमान सीता को खोजते हुए लंका पहुँच गए।
शनि ने हनुमान से प्रार्थना की कि वह देवताओं के हित के लिए अपना सिर शिवलिंग और उसके पैर के बीच कर दें जिससे वह उनके सिर पर पैर रखकर उतर भागे। हनुमान ने पूछा ऐसा करने से उन पर शनि का क्या दुष्प्रभाव होगा। शनि ने बताया कि उनका घर परिवार उनसे बिछड़ जाएगा।
हनुमान मान गए क्योंकि उनका कोई घर परिवार था ही नहीं। इस उपकार के बदले शनि ने हनुमान से कोई वर माँगने के लिए कहा। हनुमान ने वर माँगा कि शनिदेव कभी उनके किसी भक्त का अहित न करें।
और तब ही से जो कोई हनुमान जी का भक्त शनिवार को हनुमान जी की पूजा करता है उन्हें चमेली का तेल मिला सिंदूर चोला चढ़ाता है, उसे शनि देव किसी किस्म का भी कोई कष्ट नहीं देते!
साढ़ेसाती या ढैया का उस भक्त पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होता!