भगवान जगन्नाथ की नई मूर्तियां नीम की विशेष किस्म की लकड़ी से बनाई जाती है, इसे स्थानीय भाषा में दारु ब्रह्मा कहते हैं।
इस समारोह में न सिर्फ मूर्तियां बदली जाती हैं बल्कि रहस्यमयी अनुष्ठान के जरिये ‘ ब्रहमा शक्ति’ भी पुरानी मूर्ति से नई मूर्ति में स्थानांतरित की जाती है।इस प्रक्रिया की शुरुआत जगन्नाथ को दोपहर का भोग लगाने के बाद होती है। भगवान व उनके भाई-बहनों के लिए विशेष तौर पर 12 फुट की माला, जिसे धन्व माला कहते हैं, तैयार की जाती है। पूजा के बाद यह माला ‘पति महापात्र परिवार’ को सौंप दी जाती है, जो पुरी से 50 किलोमीटर दूर स्थित काकतपुर तक मूर्तियों के लिए लकड़ी खोजने वाले दल की अगुआई करते हैं।
काकतपुर में मां मंगला का मंदिर है। वृक्षों की खोज पर निकला दल यात्रा के दौरान पुरी के पूर्व राजा के महल में रुकता है। सबसे बड़ा दैतापति (सेवक) मंदिर में ही सोता है और माना जाता है कि देवी उसके सपने में आकर उन नीम के वृक्षों की सही जगह की जानकारी देती हैं, जिनसे तीनों मूर्तियां बननी हैं।ये कोई साधारण नीम के वृक्ष नहीं होते। चूंकि भगवान जगन्नाथ का रंग सांवला है, इसलिए जिस वृक्ष से उनकी मूर्ति बनाई जाएगी वह भी उसी रंग का होना चाहिए। हालांकि भगवान जगन्नाथ के भाई-बहन का रंग गोरा है इसलिए उनकी मूर्तियों के लिए हल्के रंग का नीम वृक्ष ढूंढा जाता है। जिस वृक्ष से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बनाई जाएगी, उसकी कुछ खास पहचान होती है, जैसे उसमें चार प्रमुख शाखाएं होनी जरूरी हैं। ये शाखाएं नारायण की चार भुजाओं की प्रतीक होती हैं। वृक्ष के समीप ही जलाशय, श्मशान और चीटियों की बांबी हो यह बहुत जरूरी होता है। वृक्ष की जड़ में सांप का बिल होना चाहिए और वृक्ष की कोई भी शाखा टूटी या कटी हुई नहीं होनी चाहिए। वृक्ष चुनने की अनिवार्य शर्त होती है कि वह किसी तिराहे के पास हो या फिर तीन पहाड़ों से घिरा हुआ हो।उस वृक्ष पर कभी कोई लता नहीं उगी हो और उसके नजदीक ही वरुण, सहादा और बेल के वृक्ष हों (ये वृक्ष बहुत आम नहीं होते हैं)। और चिह्नित नीम के वृक्ष के नजदीक शिव मंदिर होना भी जरूरी है।मूर्तियों के लिए नीम के वृक्षों की पहचान करने के बाद एक शुभ मुहुर्त में मंत्रों के उच्चारण के बीच उन्हें काटा जाता है। इसके बाद इन वृक्षों की लकडिय़ों को रथों पर रखकर दैतापति जगन्नाथ मंदिर लाते हैं, जहां उन्हें तराशकर मूर्तियां बनाई जाती हैं।
मूर्तियां बदलने का यह समारोह मशहूर रथ यात्रा से तीन दिन पहले होता है, जब ‘ब्राह्मïण’ या पिंड को पुरानी मूर्तियों से निकालकर नई मूर्तियों में लगाया जाता है। मूर्तियां बदलना इतना आसान नहीं है और इसके लिए कड़े नियम होते हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है। नियमानुसार मूर्तियां बदलने के लिए चुने गए दैतापतियों की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है, पिंड बदलने से पहले उनके हाथ कपड़े से बांध दिए जाते हैं और लकड़ी की खोज शुरू होने के पहले ही दिन से उन्हें बाल कटवाने, दाढ़ी बनाने या मूंछ कटाने की अनुमति नहीं होती है। मध्यरात्रि में दैतापति अपने कंधों पर पुरानी मूर्तियां लेकर जाते हैं और भोर से पहले उन्हें समाधिस्त कर दिया जाता है। यह ऐसी रस्म है, जिसे कोई देख नहीं सकता और अगर कोई देख ले तो उसका मरना तय होता है। इसी वजह से राज्य सरकार केआदेशानुसार इस रस्म के दौरान पूरे शहर की बिजली बंद कर दी जाती है। अगले दिन नई मूर्तियों को ‘रत्न सिंहासन’ पर बैठाया जाता है।