जीएसवीएम में लकवा के मरीजों के लिए बनी अलग यूनिट

 

 

कानपुर। पक्षाघात, लकवा या पैरालिसिस ऐसी घातक बीमारी है जो ज्यादातर उम्र बढ़ने और शरीर में अन्य बीमारियां होने पर व्यक्ति को अपाहिज बना देती है। यह देखा जा रहा है कि आजकल युवाओं में भी ये समस्या बढ़ रही है। जो कि काफी चिंता का विषय है। यहां के जीएसवीएम मेडिकल कालेज के एलएलआर (हैलट) अस्पताल में इस बीमारी से निपटने के लिए अब चार बेड का एक अलग वार्ड बनाया गया है और अगर समय रहते यानि लकवा का अटैक होने के पांच घंटे के अंदर मरीज यहां पहुंच जाता है तो इस मर्ज के लिए काफी महंगा मगर कारगर उपचार मरीजों को दिये जाने की तैयारी कर ली गई है। अस्पताल के प्रमुख अधीक्षक डॉ. आरके सिंह ने यह जानकारी देते हुए बताया कि लकवा जिसे ब्रेन स्ट्रोक भी कहते हैं. इस स्थिति में अचानक ब्रेन के किसी हिस्से में डैमेज होने या खून की सप्लाई रुकने पर एक तरफ के अंग काम करना बंद कर देते हैं. इसे लकवा कहते हैं। कई बार हल्का स्ट्रोक आने पर शरीर के एक ओर के हिस्से में काफी कमजोरी आ जाती है।

लकवा मारने के आम तौर पर 2 कारण माने जाते हैं, जिसमें एक है ब्रेन हैमरेज है यानी दिमाग में जाने वाली ब्लड का पाइप फट जाना. दूसरा कारण है कि दिमाग में खून की सप्लाई करने वाले पाइप में किसी न किसी तरह की ब्लॉकेज आ जाना। ज्यादातर मामलों में पाइप ब्लॉक होने की वजह से ये समस्या होती है. रिपोर्ट्स की मानें तो 85 फीसदी लकवा के केस में ब्लड पाइप ब्लॉक होने के कारण सामने आते हैं। डॉ. आरके सिंह ने बताया कि अभी भी हैलट में आने वाले मरीजों की जान लगातार बचाई जा रही है। प्राचार्य डॉ. संजय काला के प्रयास व न्यूरोलॉजी के विभागाध्यक्ष के साथ मिलकर नई यूनिट तैयार हो गई है। डॉ. आरके सिंह ने बताया कि इस थ्रम्बोलाइसेज यूनिट में फालिज के लिए कैनेक्टाफ्लेज इंजैक्शन जो काफी महंगा आता है वह यहा हमेशा रहता है। उन्होंने यह भी बताया कि फालिज की अवस्था में पांच घंटे के अंदर क्वालिफाइड डाक्टर के यहां पहुंचना आवश्यक होता है इसलिए लोगों को जागरूक रहना चाहिए। उन्होंने ने बताया कि अगर बात करें रिस्क फैक्टर की तो ब्लड प्रेशर के मरीज, डायबिटीज के मरीज, लिपिड प्रोफाइल बढ़ने पर लकवा मारने का खतरा ज्यादा रहता है। जिन लोगों को हार्ट से संबधी परेशानी रहती है और ब्लड का थक्का जमने की दिक्कत होती है उन्हें लकवा मारने का खतरा ज्यादा रहता है।

लकवा मारने के पहले से शरीर में कोई संकेत नज़र नहीं आते हैं. डॉ. आरके सिंह ने बताया कि बहुत कम मामलों में इसका पहले से पता चल पाता है. ये बहुत जल्दी होता है जब तक मरीज कुछ समझ पाए या स्थिति को संभाल पाए इसका मौका भी नहीं मिल पाता.

लकवा मारने का पहले से पता नहीं चल पाता है लेकिन जिन लोगों को पहले एक छोटा सा लकवा आता है. उन्हें इसे लेकर अलर्ट रहना चाहिए. कई बार बहुत कम समय के लिए बोलने में दिक्कत या शरीर के एक हिस्से में कमजोरी आ जाए तो ये हल्के लकवा के लक्षण हो सकते हैं. हालाकि इस स्थिति में कुछ देर बाद मरीज ठीक हो जाता है. डॉक्टर्स इसे टीआईए कहते हैं. इसे लकवा का संकेत माना जा सकता है.

लकवा मारने पर हाथ, पांव और मुंह पर असर आता है. ऐसे में चलने, बोलने, लिखने और एक तरफ के अंगों को ठीक से काम करने में परेशानी होती है. ऐसे लोगों को कमजोरी बहुत आती है.

दोनों पैरों का पक्षाघात, जिसे सक्थि संस्तंभ (पैराप्लेजिया) कहते हैं, व्यापक रोग है। यह किसी एक पैर में क्रमशः बढ़ती हुई कमजोरी के रूप में प्रांरभ होता है। प्रारंभिक अवस्था में ध्यान न देने और उपेक्षा करने पर दोनों पैरों में पूर्ण पक्षाघात हो सकता है और रोगी का अपने मल मूत्र पर नियंत्रण नहीं रह जाता। यह बहुधा मेरुरज्जु में छोटे अर्बुद की तरह के रोग से, जो धीरे धीरे वर्षों से बढ़ता रहता है या सिफिलिस जैसे रोग के प्रदाह से, होता है। प्रारंभिक अवस्था में पहचान और उपचार होने से दोनों ही ठीक हो सकते हैं। भारत में खेसारी सदृश कुछ निकृष्ट अनाज उपजते हैं, जिन्हें दाल या फली के साथ खाने पर मेरुज्जु का चटरी मटरी रोग (लैथरिज्म) हो जाता है, जिसके कारण सक्थि संस्तंभ हो जाता है। लैंड्रो लैंडरिजस) का पक्षाधात तेजी से बढ़नेवाला पक्षाधात है, जिसमें ज्वर पांव से चढ़ता है और सारे शरीर को आक्रांत कर लेता है। यह विषाणुओं से होता है। इसमें श्वसन का पक्षाधात होकर रोगी की मृत्यु भी हो सकती है। मेरुरज्जु का प्रदाह समाप्त होने तक रोगी को लोहे के फेफड़े में रखकर बचाया जा सकता है।

दुनिया भर में करोड़ों लोग बचपन से पंगु होते हैं। रोग को जड़े से दूर करने का कोई उपाय नहीं हैं, लेकिन बच्चों में इसका संक्रमण रोकने के लिए टीके अवश्य तैयार किए जा रहे हैं। चेहरे का पक्षाघात भी अत्यंत व्यापक रोग है और हर आयु में हो सकता हैं, जिसमें आधा चेहरा किसी दिन सबेरे या नहाने के बाद पक्षाधातपीड़ित पाया जाता है। यह प्रायः आधे चेहरे पर व्याप्त मुखतंत्रिकाओं के चारों ओर ठंढ लगने से होता है। अविलंब चिकित्सा से रोगमुक्ति संभव है।

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